Monday 27 November 2017

नज़र तो तुम्हारी, अपने बस मे नहीं है...

ख़ामख़ा कि आदतों को पालते क्यूँ हो?
बात बात पें दिल से, निकालते क्यूँ हो?

महफिलों में मुझसे, किनारा करने वाले
मेरी शायरी मे ख़ुद को ख़ंगालते क्यूँ हो?

नज़र तो तुम्हारी, अपने बस मे नहीं  है
बात ज़ुबान तक आए तो टालते क्यूँ हो?

ख़ामोशी काफ़ी हैं तुम्हें बहकाने के लिए
तुम शराब से ख़ुद को, संभालते क्यूँ हो?

मुहब्बत से कहते हो,  मुहब्बत  नहीं हैं
तुम ख़ुद को हि धोख़े में, डालते क्यूँ हो?
~ Shraddha