Saturday 27 June 2015

तनहाई

शाम दस्तक देती हैं, दिन ढलने लगता हैं
राह ताकें अँधेरा ये मुझे छलने लगता हैं।
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जेहन में रह जाते हैं कुछ खयाल और सवाल
इस बीच इक वहम दिल में पलने लगता हैं।
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जर्रे जर्रे में दिखता हैं मेरा ही अक्स मुझको
तनहाई का ये वक्त इस कदर खलने लगता हैं।
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रेंगते हुए आता है, सर से पाँव तक चुभता हैं
भीतर दफन इक राज का जख्म जलने लगता हैं।
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गुंज उठती हैं खामोशी, रूह की गहराई से
चारों तरफ सन्नाटों का शोर चलने लगता हैं।
~ अनामिका