किसी रोज़ तो ज़िन्दगी का, ये दस्तूर समझ आएं
की सज़ा जिसकी मिलती हैं वो क़सूर समझ आएं।
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ज़िन्दा रहने में और जीने में तो फ़र्क होता हैं जानी
की ज़िन्दगी जिसेे कहते हैं, वो फ़ितूर समझ आएं।
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अच्छी ख़ासी तालीम उनको तजुर्बों से मिलीं होगी
पहली ही नज़र में जो हमको मग़रूर समझ आए।
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चलो माना की देर तो हैं अंधेर नहीं तेरे घर; लेकिन
अपने हिस्से का हमको भी कभी, नूर समझ आएं।
~ Shraddha