Saturday 23 September 2017

मेरी ख़ामोशी को क्यो ग़ुरूर समझ लेतें है। .

न जाने क्या क्या आप हुज़ूर समझ लेतें है
मेरी ख़ामोशी को क्यो ग़ुरूर समझ लेतें है।
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मुसलसल कदमों मे, पड़ा हैं  अग़र पत्थर
क्या ख़ूब कि उसें, कोहिनूर समझ लेतें हैं।
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जहन्नुम से बचाने के सदके तो वो करती है
ये और किसे जन्नत की, हूर समझ लेतें हैं।
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तेरे तसव्वुर से शराफ़त, धोख़े में आ गई है
बैठे बैठे सब नशे मे हमें, चूर समझ लेतें हैं।
~ श्रद्धा